कुछ धूमिल सी तुम थी,
कुछ धूमिल सा मैं था।
कुछ धूमिल,
ये इश्क़ तेरा मेरा।
कुछ ख्वाहिशें धूमिल सी,
लिए हम चले।
मिले भी तो किस मोड़ पे,
कुछ धूमिल सी तुम थी,
कुछ धूमिल सा मैं था।
दोष किसका हुआ,
शायद!
ना तुम समझी,
ना मुझे कुछ समझ आया।
बंदिशें कुछ मैंने बाधिं,
कुछ तूने ना टूटने दीं।
हम मिले भी तो किस मोड़ पे,
कुछ धूमिल सी तुम थी,
कुछ धूमिल सा मैं था।
पर ना जाने ये दिल,
कुछ ऐसा जानता है।
तुझसे मिलने की आस,
नादान हमेशा बांधता है।
फिर क्या फर्क पड़ता,
की कुछ धूमिल सी तुम थी,
कुछ धूमिल सा मैं था।
By Manoj Kumar Singh