कैसे समझाऊं तुम्हें?
कि ये चुप्पी चुभती है मुझे
भय उत्पन्न करती है,
उस पुराने खंडहर की तरह,
जो सदियों से खड़ा,
अमूक, नि: श्वास, नि: शब्द
समाए अपने भीतर
असंख्य हृदय की वेदना- गाथा !
कैसे समझाऊं तुम्हें?
कि पल-पल करती हूं मैं तुम्हारा इंतज़ार,
रात की शीतलता से मुरझाए सूरजमुखी की तरह,
कि तुम आओ;
और मैं खिल जाऊं उस पुष्प जैसी
जो किरणों के आभास से ही जीवंत हो उठती हैं!
कैसे समझाऊं तुम्हें?
कि प्रेम में यूं सरिता के अपरिमित, निरंकुश वेग के सी
हर सीमा तोड़ अपयश ले बैठी हूं मैं!
कैसे समझाऊं तुम्हें?
कि पुराने बरगद वाली उस गौरेया सी
स्वप्नों के घर बना चुकी हूँ मैं!
कैसे समझाऊं तुम्हें?
कि भय लगता है मुझे,
तुम छोड़ न जाओ मुझे बचपन की तरह!
कैसे समझाऊं तुम्हें?
कि तुम्हारी ये दूरी शिथिल कर देती है
प्रेम को मेरे
बर्फीले तुफानों में वस्त्रहीन शरीर की तरह!
कैसे समझाऊं तुम्हें?
कैसे समझाऊं तुम्हें?
by Rabiya Nizam
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