हार जाता है वह संघर्षों तले,
आह भी ना निकाले है,
वह ऐसा पिता।
कैसे आंगन की हरियाली,
इतनी हरी मां तो है,
पर संभाले जड़ है पिता।
जोड़ती हूं खुद की कमाई,
कौड़िया उतनी ही कौड़ी में,
संभाले घर है पिता।
हार जाता है वह संघर्षों तले,
आह भी ना निकाले है,
वह ऐसा पिता।
By रिचा पाठक

मैं रिचा घनश्याम पाठक मैने अपनी शिक्षा M.Com तक की है ।कविताओं को पढ़ने और लिखने में मेरी रुचि स्कूल समय से ही है । मेरी कविताएं समाज की ‘विषमताओं’ को दूर करने की होती है। मैने ऐसी बहुत सी कविताएं लिखी है, जैसे की पंखों में उसके उड़ान थी पिजड़े मे कैद एक नन्नी सी जान थी, कृष्णा लीला, गांव बना शहर, राम यात्रा इतियादी।मेरा अनुभव ही मेरी कलम है।
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