“स्त्री मन का भवर “
क्या स्त्री की व्याख्या उसके मूल से बड़ी है?
उसके मन की दुविधा कुछ इस तरह अरी है,
झींझक से भरी है थोड़ी डरी डरी है।
जमाने को बढ़ता देख आज वह निकल पड़ी है,
कभी हौसले से पांव दहलीज को तोड़ता,
तो कभी घटनाओं का शोर अंदर से और मोड़ता ।
आखिर क्यों स्त्री मन मुझसे यह स्वर है बोलता,
समाज की गांठे साहस से खुलता।
कभी सिद्ध रासु ने देखा नारी को उपभोग की वस्तु से जोड़कर,
तो कभी नाथों ने देखा परित्याज्य वस्तु के तुल्य रखकर।
मिला है जो जीवन का माध्यम बना नारी से महान है ,
तो पुरुष का पाखंड फिर क्यों देखता आसमान है।
पुरुष का विचलन मूल स्वभाव में गिनवाई ,
फिर स्त्री की मंशा पर सवाल समाज ने उठाई ।
हर सामाजिक किस्सा हूं मैं।
किन-किन मानदंडों का हिस्सा हूं मैं।
पितृसत्ता ने दैहिक अंतर जो पाया,
समाज में स्त्री पुरुष तत्व का संतुलन ना बनाया ।
अंतर क्यों पैदा किया तुमने अपने नजरिए में इतना,
ना पैदा ली थी कोई स्त्री, पैदा लिया था कोई पुरुष,
पैदा हुआ था बस एक इंसान।
आदर्श, गरिमा और मर्यादा,
मत बनाओ इसे नारी जीवन की बाधा ।।
धन्यवाद।
ऋचा कुमारी
An introvert girl from Munger with lots of dreams in the eyes. Loves to teach and write. Wishes to share her joy and experiences through her writing. She wants to write on various social issues to create a positive changes in the society. She aspires to share the thoughts of a mother as home maker. And connecting today’s children to their roots that they are disconnecting.