कैसे समझाऊं तुम्हें by Rabiya Nizam
कैसे समझाऊं तुम्हें? कि ये चुप्पी चुभती है मुझे भय उत्पन्न करती है, उस पुराने खंडहर की तरह, जो सदियों से खड़ा, अमूक, नि: श्वास, नि: शब्द समाए अपने भीतर असंख्य हृदय की वेदना- गाथा ! कैसे समझाऊं तुम्हें? कि पल-पल करती हूं मैं तुम्हारा इंतज़ार, रात की शीतलता से मुरझाए सूरजमुखी की तरह, कि…