क्यों मुझे हमेशा एक पहचानी सी दर्द सताती है,
मिली हुई तकदीर को भी ख्वाब बताती है,
खो ना दू नायाब तहफ़े को जहन में हर सुबह क्यू चली आती है,
मन बहलाने को कुछ अल्फाज सजा कर भ्रम मिटाती हैं!
सच्चाई से मज़बूत होता रहे यह रिश्तों का बंधन,
हर रोज़ सजदे में सिर झुकाती है।
हां क्यों वह दर्द एक मिठास भर जाती है,
मेरा ज़मीर कहता है हां मैं काबिल हूं,
फिर क्यों उसके सामने खुद को शून्य ही पाती हूं...
उसके लिए मैं व्यर्थ बनकर परे छूट जाती हूं,
बढ़ते कदमों पे संदेह की परछाई का तिलक लगाती हूं
यही दर्द से क्यू हर बार सताई जाती हूं!
खुद को नकार कर किसे स्वीकारने जाती हूं,
खुद को स्वयं से विलग कर किसके साथ संलग्न होना चाहती हूं।
वर्तमान की किस रेत से भविष्य को बनाती हूं,
यह जो बुझी हुई सी प्यास थी उसे क्यू सागर से मिलवाती हूं,
हां इस दर्द में एक पल खुद को भी भूल सी जाती हूं!
ना जाने जिसे संपूर्णता से पाया भी नहीं उसे खो देने के डर से हर पल सताई जाती हूँ।
By Richa Kumari
