प्रिय तुम !
तुम्हे मृत्यु से भय लगता है या फिर सब को ! भय मृत्यु के बाद खो जाने का है, मृत्यु का नहीं यह उत्तर में जानता हूं । पर यह मृत अवस्थाओं का तिरस्कार है, जिसे या तो दरकिनार कर दिया जाता है या सम्मान समझ लिया जाता है ( मौन की संकल्पना में ) और शायद यही शंका है तुम्हारे – मेरे मध्य। कि तुमने देखा है केवल मेरा जीवांत होना ,उसकी उथलना, तुम्हारा साक्षात्कार नहीं हुआ है मेरे मृत स्वरूप से या कहूं मृत अंशो से ।
मैं यहां मृत्यु की बात नहीं कर रहा प्रिय ! मृत स्वरूप तुम्हारे या मेरे या फिर जीवंत लोगों के मध्य शारीरिक प्रसंग है लेकिन इसकी विवेचना मानसिक और आत्मिक है जिसके दर्शन हेतु हमे ( मुझे और तुम्हे या सब को ) धारण करना होंगे प्राक्रतिक गुण जिस की चक्रीय प्रक्रिया में मृत और जीवंत दोनों सम्मिलित है ।
जानती हो , समय के चक्र में या तो हमे करना होंगे हासिल वह गुण भक्ति के जहां मृत्यु के बाद आता है मोक्ष और प्रेम बन सकता है वह ‘ भक्ति गुण ‘ ।
अगर तुम्हे तनिक भी लगता है कि यह सब मेरी काव्य क्रीड़ाएं है तो फिर , आँख बंद कर याद करो वह पेड़ जिसकी छाँव तले सुकून की सांसे भर रहा था हमारा यह प्रेम, पल्लवन कर रहा था संसर्ग ,जानती हो मैं पेड़ की उन हरी पत्तियों की तरह हूं जो महरूम रह गई है धूप से , तुमने या लगभग सब ने देखा है मेरा वजूद छाव से भरा शायद सुकूंन का पर्याय, पर तुमने नहीं देखी मेरी तड़प धूप के लिए,वो तड़प जहाँ एक हरी पत्ती प्रतीत होती है धूप में जीवंत दूसरी छाव में मृत।
पर किंचित भी यह तुम पर या धूप पर मेरे द्वारा दोषारोपण नहीं है इस मृत अवस्था के लिए, क्योंकि यह मृत अंश हम सब के भीतर है उतना ही जितना जीवांत और उस मृत की स्वीकृति ही जीवंत की आत्मा भी है लेकिन तुम्हरा भय इस मृत के प्रति, तुम्हरा उस मृत को निरन्तर ठहुकराना, उसे ना स्वीकारना , उसे यूं ही पड़े – पड़े सड़ने देना उसे वीभत्स बना देता है ! उसे आशा थी तुम्हारी अनुकंपा की जो उसका अंतिम संस्कार कर उसका अस्थि विसर्जन करे और बहा दे वह अस्थि कलश अपने प्रेम की गंगा में ताकि मिले उसे मोक्ष या फिर मिले उस प्रकृति में रमा तुम्हरा सानिध्य जिस से वह मृत और जीवंत के मध्य रहे सदैव तुम्हारा अंश ।
By Vijay Kumar Verma ( A student for life, social activist contributing to NGO working for Climate change and the environment. Apart from being social, I have been a District level sportsperson in Cricket. Being serious, practical, and aesthetic is part of my personality. I am contributing my facets of experiences from the field of life to the field of cricket. Differences can be many among both the fields but one strong similarity, which I can affirm is the “expect the unexpected” which bowler will bowl you yorker and when you will be settled in life. All chunks of myths are broken during the evolution of a “Boy to be a Man”. Literature is an integral part of life that groomed me towards what means today.)