शमा
एक शाम और बीत गई
एक दिन और निकल गया
बड़े गुरूर से उरुज पे था अफताब अहले सुबह
फिर शाम की दस्तक पे वो भी ढल गया..
कुछ रेत के मोजस्समें थे
कुछ मलबे थे अरमान की मीनारों के
अधूरे ख़्वाब भी चुभे थे दीद में कहीं
पर अंसुओं के रेलों में सब बिखर गया
आज फिर सजी महफिल
उसके इद्दातों, इंतजार की
और शमा फिर बेवजह यूंही पिघल गया।
©Rabiya
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